ज्योतिषजगत में कालसर्पयोग की आजकल बड़ी चर्चाएं होती हैं। प्राचीन ज्योतिषियों में सिर्फ बराहमिहिर एवं महर्षि पराशर ने अपने ग्रंथों में "सर्पयोग "का वर्णन किया है। परन्तु आजकल तो इसका डर इतना बना दिया है, कि "सर्पयोग "को कालसर्पयोग के रूप में समझाया जाने लगा है।
अब प्रश्न ये है , कि कालसर्पयोग कहां से अस्तित्व में आया ?
क्यूंकि काल शब्द से अनायास ही डर सा उत्पन्न हो जाता है। और जब काल शब्द को सर्प से जोड़ दिया जाये , तो डर लगना स्वाभाविक है। यद्धपि समाज में सामान्य रूप से "काल" और "सर्प " दोनों ही भयावह शब्द हैं, लेकिन वास्तव मे तो विद्वानों ने इसको धैर्य बंधाने एवं समझाने के दृष्ठिकोण से इस योग का नाम *काल-सर्प* योग रखा था ,जिसमे "काल" का अर्थ समय और "सर्प " हमारे पूज्य देवता हैं, अब कुल मिलाकर काल-सर्प का अर्थ ये हुआ कि हमारे जीवन के अमुक समय पर सर्प (नाग) की पूजा का समय है। नाग की पूजा शिव भक्ति युक्त होती है जो हमें विशेष प्रकार की ऊर्जा देकर मन को परम शान्ति प्रदान करती है क्यूंकि काल सर्प /पितृदोष से पीड़ित जातको की ऊर्जा शक्ति क्षीण हो जाती है इसीलिए नाग पूजा एवं शिव भक्ति का विधान हमारे शास्त्रों ने सुझाया है ताकि ऐसे जातक कष्टों से राहत प्राप्त कर सकें । जब राहु और केतु के मध्य बाकी सातों ग्रह आ जाते हैं,तो अन्य ग्रहो की अपेक्षा राहु- केतु अधिक प्रभावशाली हो जाते हैं, कुंडली में काल सर्प-योग के निर्णय में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए ,जैसे राहु और केतु के अन्य ग्रहो का सहचर्य की स्तिथि में भाव स्पष्ट कर लिए जाएँ, तो अधिक स्पष्टता आ आएगी , उदाहरण के लिए लग्न से निर्मित काल-सर्प योग में यदि राहु के साथ मंगल या अन्य कोई ग्रह है और उसके भोगांश राहु से अधिक हैं, तो यह योग पूर्ण रूप से दोषकारक नहीं माना जायेगा , बल्कि शुभ योगकारक माना जायेगा। वैदिक रूप से राहु के अधिदेवता काल तथा प्रत्याधिदेवता सर्प हैं , जबकि केतु के ..चित्रगुप्त एवं ब्रम्हा जी हैं ऐसी कुंडलियो अध्ययन से पता लगता है कि कुछ काल सर्प-योग वाले लोग तो असहनीय कष्ट झेल रहे हैं ,तथा कुछ जातक असीम वैभव ,सम्मान ,उत्तरोत्तर समृद्धि प्राप्त प्राप्त कर रहे हैं, कारण क्या हो सकता है ? नोट: लेख जारी रहेगा... देखिए... अगला भाग..